Saturday, 22 July 2017

अफ़सोस मग़र अब कहानी में...

कहती हैं दर-ओ-दीवारें सभी,
फिर कब वो मौसम आयेगा...
मैं झूम उठूँगा बरबस ही,
बचपन आँगन में समायेगा...

वो खुले गगन के नीचे सब,
फिर खाट लगाकर सोएंगे...
जब डाँट पड़ेगी नानी की,
चिल्ला चिल्ला कर रोयेंगे...

फिर मामी यूँ पुचकारेगी,
मुठ्ठी में शक्कर डारेगी...
मौसी देखेगी कनखियों से,
बिखरे बालों को सँवारेगी...

मन बहलेगा इस रिश्वत से,
मानेंगे मिला सब किस्मत से...

मुठ्ठी में भरे उन शक्कर को,
हम बड़े चाव से खाएंगे...
लौटेगी माँ जब "चुलुबन" से,
हम अपनी व्यथा सुनाएँगे...

वो गीले कपड़ों में झट से,
हमें गोद में अपने उठाएगी...
नानी का गुस्सा जायज था,
बड़े प्यार से ये समझाएगी...

हम पाकर माँ की गोदी को,
पल भर में ही इठलायेंगे...
भाई बहनों को देखेंगे,
और मन ही मन मुस्काएँगे...

जब रात घनेरी छायेगी,
और गाड़ी सीटी बजायेगी...
हम पूछेंगे नानाजी से,
क्या ट्रेन यहाँ तक आयेगी..?

नानाजी फिर समझाएंगे,
हमें किस्से नये सुनाएंगे...
हम किस्से वाली जन्नत में,
खुद को ही राजा पाएंगे...

कुछ पल बीतेगा मस्ती में,
राजा-रानी की बस्ती में...
जाने कब नींद वो आएगी,
बोझिल आँखों में समाएगी...

हम ख़्वाबों में खो जाएँगे,
और मंद मंद मुस्काएँगे...
सोए नाना के संग भले,
माँ को बाजू में पाएंगे...

अब उन्हीं दिनों की यादों में,
अक्सर मैं खोया रहता हूँ...
कहती दुनिया मैं बदल गया,
इस तंज को भी मैं सहता हूँ...

अब किसे बताऊँ दर्द अपना,
मैं सब कुछ पाकर हार गया...
ये समय बड़ा निष्ठुर निकला,
मेरे बचपन को मार गया...

अब छुट्टी बेशक आती है,
लेकिन मुझको तड़पाती है...
जब मामाघर को याद करूँ,
पलकें गीली हो जाती हैं...

मैं चाहूँ भी ग़र जाना अब,
मन यही सोच घबराता है...
अब "माँ" ही मेरी नहीं रही,
जिससे से ये सारा नाता है...

अब मेरी हँसी ठिठोली को,
कौन भला अपनायेगा...
सो जाऊँगा जब देर तलक,
अधिकार से कौन जगाएगा...

अब कौन सँवारे बाल मेरे,
मुठ्ठी में शक्कर देगा कौन...
अब डाँट कहाँ पड़ पाएगी,
गलती में भी सब होंगे मौन...

जब याद सभी की आती है,
मैं बचपन में खो जाता हूँ...
कहीं भीग न जाये नैन मेरे,
बच्चों से इन्हें छुपाता हूँ...

मैं जी लेता हूँ बचपन फिर,
इस जिम्मेदार जवानी में...
मिल आता हूँ सब अपनों से,
अफ़सोस मग़र अब कहानी में...

अफ़सोस मग़र अब कहानी में...


...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐

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