बेवजह से हो गए हैं ताल्लुक़ात, कुछ इन दिनों।
आ तलाशें ख़ुद के भीतर, मुख़्तसर सा आदमी।।
बंद कर आँखें चला सरपट, समय के चाल सा।
अपने ही उलझन में गिरता, उठ रहा है आदमी।।
खोल कर गिरहें सभी, चुपचाप है वो आजकल।
ख़ुद से ही अब ख़ूब बातें, कर रहा है आदमी।।
हो सके तो कैद कर लो, ख़्वाब सारे आँखों में।
देख कर औरों की बरकत, जल रहा है आदमी।।
फ़िक्र तेरी, जिक्र तेरा, था कहाँ अब तक रवीन्द्र।
देख ले मौसम की तरह, बदल रहा है आदमी।।
...©रवीन्द्र पाण्डेय
आ तलाशें ख़ुद के भीतर, मुख़्तसर सा आदमी।।
बंद कर आँखें चला सरपट, समय के चाल सा।
अपने ही उलझन में गिरता, उठ रहा है आदमी।।
खोल कर गिरहें सभी, चुपचाप है वो आजकल।
ख़ुद से ही अब ख़ूब बातें, कर रहा है आदमी।।
हो सके तो कैद कर लो, ख़्वाब सारे आँखों में।
देख कर औरों की बरकत, जल रहा है आदमी।।
फ़िक्र तेरी, जिक्र तेरा, था कहाँ अब तक रवीन्द्र।
देख ले मौसम की तरह, बदल रहा है आदमी।।
...©रवीन्द्र पाण्डेय