हीरे-मोती, माहताब चुनूं...
दिखला दूं, कौन हूँ! दुनियाँ को,
मन में अक्सर यही बात गुनूं...
क्यों बरखा भाए मधुबन को,
शीतल कर जाए तन-मन को,
भीगेगीं अल्हड़ पंखुड़ियाँ,
उस पल बूंदों का राग सुनूं...
मैं सोचता हूँ...
जब पनिहारिन पनघट जाए,
गागर में सागर भर लाये...
जब बलखाती गुलनार चले,
उस पायल की झनकार सुनूं...
मैं सोचता हूँ...
अंगना बाबुल का बिसराये,
दुल्हन घूंघट में शरमाए...
जब सजे पिया के खातिर वो,
उस पल गजरे का हार चुनूं...
मैं सोचता हूँ...
बचपन जब खेले आंचल में,
जैसे हो चंदा बादल में...
जहाँ बिन बातों के हंसी खिले,
ऐसे ख़्वाबों के तार धुनूं...
मैं सोचता हूँ...
जब बिंदिया गजरा बात करें,
पायल कंगन उत्पात करें...
छुअन से सिमटे तन और मन,
वही प्रेम रचित मनुहार सुनूं...
मैं सोचता हूँ...
हर आंगन में किलकारी हो,
काँधों पर जिम्मेदारी हो...
सिर ढांके बहुएं पैर छुए,
वृन्दावती के वही राग सुनूं...
मैं सोचता हूँ...
मन पुलकित. तन कुसुमित हो,
नहीं प्रेम पिपासा परिमित हो...
उस नटवर नागर मोहन के,
बंशी से धुन मल्हार सुनूं...
मैं सोचता हूँ...
मैं सोचता हूँ, एक ख़्वाब बुनूं
हीरे-मोती, माहताब चुनूं...
दिखला दूं, कौन हूँ! दुनियाँ को.
मन में अक्सर यही बात गुनूं...
मैं सोचता हूँ...
मैं सोचता हूँ...
...©रवीन्द्र पाण्डेय 🌹🌹
*9424142450#