Friday, 31 March 2017

ढूंढ रहा मन फिर वो आँगन.....



ढूंढ रहा मन फिर वो आँगन,
------------------***--------------

ढूंढ रहा मन फिर वो आँगन, कोई तो बतलाये ना..?
फुदक रही गौरेया जिसमें, ऐसा नज़र क्यों आये ना..?

साँझ घनेरी घिर जाये, वो तुलसी का बिरवा महके...
धुआँ उठे फिर छप्पर से, कोई ऐसी दुनिया लाये ना..?

महक उठे सब बाग़ बगीचे, हरियर चुनरी लहराये...
ताल तलैया मचल उठे, क्यूँ ऐसी बरखा आये ना..?

दादा के जूतों में भरकर, दोनों पैर है थिरक रहे...
नींद वही बचपन वाली हो, कोई ऐसी लोरी गाये ना..?

आँगन है पर सूना सूना, चिकनी सारी दीवार हुई...
फुदक फुदक कर दाना चुगने, गौरेया फिर आये ना..?

...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐💐
विश्व गौरेया दिवस पर समर्पित पंक्तियाँ....💐💐🙏🏽

होली कैसे मनाऊँ..?



होली कैसे मनाऊँ..?
------------------***------------------

सिसक रहा हूँ मन ही मन, ये आंसू कैसे छिपाऊँ?
तुम्हीं बताओ देश प्रेमियों, होली कैसे मनाऊँ?

वादा था नन्हें हाथों को, देता मैं पिचकारी...
शांति कुंड की आहुति में, बुझ गयी ये चिंगारी...
सुलग रहे बस्तर में कैसे, शांति दीप मैं जलाऊँ?
तुम्हीं बताओ...

मौत बिछी थी हर पग में, लेकिन कैसे रुक जाता?..
वीर तुम्हारा बेटा हूँ माँ, कायर क्यों कहलाता?..
कर्तव्यों की बलिवेदी पर, शीश सदा मैं झुकाऊँ...
तुम्हीं बताओ...

माना बाबूजी बूढ़े अब, माँ की उमर ढली है...
घर की जिम्मेदारी भी, सुरसा मुँह लिए खड़ी है...
मातृभूमि के लिए समर्पित, सौ सौ जनम मैं पाऊँ...
तुम्हीं बताओ...

अंतिम सांस के रुकने तक, हमने हथियार न डाला...
अमन के राह की चाहत में, नफ़रत की पी ली हाला...
भटके हुए लौट आओ घर, यही सबको मैं समझाऊँ...
तुम्हीं बताओ...

तुम्हीं बताओ देश प्रेमियों, होली कैसे मनाऊँ..?
मैं होली कैसे मनाऊँ..?

11 मार्च 2017 को 'सुकमा' बस्तर....(छत्तीसगढ़) में वीर गति प्राप्त माँ भारती के सपूतों को शब्दांजलि...
....©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐                                                

बिछड़ ना जाऊँ कहीं...

बिछड़ ना जाऊँ कहीं...
-------------***-----------

बिछड़ ना जाऊँ कहीं, सोच कर घबरा गया...
साथ तेरा क्या मिला, बेरंग जमाना भा गया...

सर्द आहें, सुर्ख़ लब, जाने है क्या जादूगरी..?
इश्क़ हैं धीमा ज़हर, हँस के पीना आ गया...

क्या किसी अंजान पे, इस क़दर भी यकीन हो..?
नज़रें उनसे क्या मिली, इक नशा सा छा गया...

है फ़िकर उनकी मग़र, होश अपना खो दिये...
दिल्लगी के खेल में, दिल ये बेचारा गया...

लोग कहते हैं 'रवीन्द्र', आग का दरिया इसे...
जो उतर आया यहाँ, वापस न दोबारा गया...

...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐💐

उनकी गलियों से मैं...


उनकी गलियों से मैं...
--------------*****------------

उनकी गलियों से मैं, जब भी गुज़र जाता हूँ...
महकते ग़ुल की तरह, और निखर जाता हूँ...

फ़ासले और बढ़ा दें, ये चलन मुमकिन है...
तेरी आबो इतर है संग, जिधर जाता हूँ...

रात-ओ-दिन होते हैं, मुझे भला क्या लेना है...
बिन तेरे जानशीं, मैं गोया सिफ़र जाता हूँ...

रुख-ए-ताबीर की, हसरत में कट रही है उमर...
बंद आँखों से तुझे, क्या मैं नज़र आता हूँ..?

अब न देखेंगे बहार, बिन उसके हम भी 'रवीन्द्र'...
फ़क़त इसी ख़याल से, जाने क्यूँ सिहर जाता हूँ..?

...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐💐

जला बेशक़ मुझे.....



जला बेशक़ मुझे, जो रौशनी की चाहत है...
तेरी उम्मीद में ग़र, दूर तक भी भोर नहीं...
कभी ना आज़मां, फूँक लगाकर मुझको...
मैं इक मशाल हूँ, दिया कोई कमज़ोर नहीं...

...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐💐

पल दो पल के साथ का.....

पल दो पल के साथ का, मुंतज़िर मैं भी रहा... ------------------------***-------------------- पल दो पल के साथ का, मुंतज़िर मैं भी...