Friday, 31 March 2017

उनकी गलियों से मैं...


उनकी गलियों से मैं...
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उनकी गलियों से मैं, जब भी गुज़र जाता हूँ...
महकते ग़ुल की तरह, और निखर जाता हूँ...

फ़ासले और बढ़ा दें, ये चलन मुमकिन है...
तेरी आबो इतर है संग, जिधर जाता हूँ...

रात-ओ-दिन होते हैं, मुझे भला क्या लेना है...
बिन तेरे जानशीं, मैं गोया सिफ़र जाता हूँ...

रुख-ए-ताबीर की, हसरत में कट रही है उमर...
बंद आँखों से तुझे, क्या मैं नज़र आता हूँ..?

अब न देखेंगे बहार, बिन उसके हम भी 'रवीन्द्र'...
फ़क़त इसी ख़याल से, जाने क्यूँ सिहर जाता हूँ..?

...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐💐

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