जो भी हो जाए कम है,
क्यों तेरी आँखें नम हैं?
देते हैं ज़ख्म अपनें,
मिले गैरां से मरहम है।
तू अपनी राह चला चल,
पीकर अपमान हलाहल।
या मोड़ दिशा हवाओं के,
गर तुझमें भी कुछ दम है।
न्याय सिसक कर रोए,
अन्याय की करनी धोए.
यहाँ झूठ, फ़रेब के क़िस्से,
नित लहराते परचम हैं।
नैतिकता हुई है घायल,
संस्कार ने बाँध ली पायल।
किस सत्य की खोज में है?
यहाँ सत्य तो एक वहम है।
सोने की चिड़िया खो गई,
करुणा और ममता सो गई.
मतलब और स्वार्थ के युग में,
विपदा है, दुःख है, गम है।
सुखदेव और बिस्मिल भूले,
अब कौन भगतसिंह झूले?
आज़ाद है; बस किस्सों में,
मेरे देश का ये आलम है।
अफ़सोस करें भी कैसे,
हम जीने लगे हैं ऐसे।
अब कौन सँवारे गुलशन,
यहाँ पतझड़ का मौसम है।
यहाँ पतझड़ का मौसम है।
यहाँ पतझड़ का मौसम है।
...©रवीन्द्र पाण्डेय 💐💐