Wednesday, 27 September 2017

निगाहें नाज़ करती हैं...

निगाहें नाज़ करती हैं
फ़लक के आशियाने से,
खुदा भी रूठ जाता है
किसी का दिल दुखाने से।

कोई संगीन मसला हो
कुछ पल भूलना बेहतर,
महज़ गाँठें उलझती हैं
ज़बरन आज़माने से।

उठो तूफ़ान की तरह
बहो सैलाब बन कर तुम,
मज़ा आता है दुनियां को
महज़ दीपक बुझाने से।

रहें कुछ फासले हरदम
नसीहत भूल ना जाना,
परख बढ़ जाती है अक्सर
किसी के दूर जाने से।

ख़्वाहिश जवां हो जब
खुद के आशियानें की,
जरूरी मशविरा करना
किसी बेहतर घराने से।

घुटन है लाज़मी उस घर
जहाँ रिश्तों में सीलन हो,
सदा परहेज करना तुम,
 यूँ किसी दर पे जाने से...

ख़बर रखना जरूरी है
पड़ोसी मुल्क़ का यारों,
उसे ताक़ीद भी करना
बदी से बाज आने से।

हुए रिश्ते कई घायल,
निगाहों में अगर शक हो,
कभी ना चूक जाना तुम,
'रवीन्द्र', रिश्ते निभाने से...


...©रवीन्द्र पाण्डेय 💐💐

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