Monday 21 August 2017

हसरत धुआँ-धुआँ हैं...

हसरत धुआँ-धुआँ हैं,
कैसा तेरा शहर...
मिलते हसीं हजारों,
लेकिन हिज़ाब में...

संगीनों के साये,
पसरे हैं हर तरफ़...
सब कुछ झुलस गया है,
मज़हब के तेज़ाब में...

कोई मसीहा बन के,
आयेगा फिर यहाँ...
मशगूल रहनुमा हैं,
इसी लब्बोलुआब में...

खिड़की भी कैसे खोलें,
बारूद की है बू...
अब तो अमन भी जैसे,
हासिल है ख़्वाब में...

खोलो गिरह ये सारे,
बढ़कर मिलो गले...
ढूंढो न कोई धब्बा,
तुम माहताब में...

कुछ इंतज़ाम ऐसा,
फिर अब न खूं बहे...
न कुरबां हों फौज़ी,
मतलब के जेहाद में...

...©रवीन्द्र पाण्डेय💐💐

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