बैठ कर कुछ पल मैं सोचूं,
वक़्त क्यूँ रुकता नहीं...
है अगर धरती से यारी,
क्यूँ गगन झुकता नहीं...
काश के ऐसा कभी हो,
देर तक खुशियाँ मिले...
ख़्वाबों की मज़बूत टहनी,
में नया कोई ग़ुल खिले...
ख़्वाबों की लम्बी डगर है,
सिलसिला रुकता नहीं...
है अगर धरती से यारी,
क्यूँ गगन झुकता नहीं...
क्यूँ चले नित चाँद तारे,
घूमती धरती है क्यूँ...
तुंग पर्वत शान से है,
धीर सा सागर है क्यूँ...
क्यूँ फ़लक है स्याह होता,
सब धवल रहता नहीं...
है अगर धरती से यारी,
क्यूँ गगन झुकता नहीं...
चटकती कलियों की आहट,
भौंरे ही सुनते है क्यूँ..?
प्रेम में घायल हुआ जो,
प्रेम फिर बुनता है क्यूँ...
मन में क्यूँ है पीर भरता,
नीर क्यूँ बहता नहीं...
है अगर धरती से यारी,
क्यूँ गगन झुकता नहीं...
कोई तो ऐसा भी कर दे,
समय पग उल्टा भी धर दे...
दे मुझे बचपन सुहाना,
माँ की लोरी का ज़माना...
ऐ किशन तू तो है सक्षम,
क्यूँ भला करता नहीं...
है अगर धरती से यारी,
क्यूँ गगन झुकता नहीं...
है अगर धरती से यारी,
क्यूँ गगन झुकता नहीं...
बैठ कर कुछ पल मैं सोचूं,
वक़्त क्यूँ रुकता नहीं...
...©रवीन्द्र पाण्डेय 🌹🌹
No comments:
Post a Comment