Sunday, 25 November 2018

थक गये पँख, उड़ते हुए ख़्वाब के....



ज़िन्दगी के सुहाने सफर में यहाँ,
फिसलन भरे मोड़ हालात के।
जल रहा है बदन, धूनी की तरह,
धुएँ उठ रहे, भीगे जज़्बात के।

कसक को पिरोए, वो फिरता रहा,
जिया भी कभी, या कि मरता रहा।
सुनेगा भी कौन, दुपहरी की व्यथा,
सब तलबगार रंगीन दिन-रात के।

कोई तो साथ हो, पल भर के लिए,
निभा पाया कौन उम्र भर के लिए,
मुकम्मल समझ लूँगा ये ज़िन्दगी,
फिर हसीं दौर महके तेरे साथ के।

कोई कितना सँवारेगा रिश्ते यहाँ,
आग लगने पर ही उठता है धुँआ।
मान लेना मोहब्बत ही बाकी नहीं,
दाग दिखने लगे जब माहताब के।

अब दुआ बेअसर, दवा बेज़ार है,
सफ़ीना की उम्मीद पतवार है।
हक़ीकत सी होगी सुनहरी सुबह,
थक गये पँख, उड़ते हुए ख़्वाब के।


...©रवीन्द्र पाण्डेय 💐💐
    #9424142450#

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