अपने मुल्क़ की बेहतरी के ख़्वाब क्या देखूँ...
यहाँ तो लोग, दिलों में दीवार रखते हैं।
किसी मज़लूम की हालात से पसीजें ना भले...
मग़र लाशों को, सब सरे बाज़ार रखते हैं।
मची है होड़ क्यूँ, सब हैं अगर ये पैरोकार...
भाई-भाई में फिर क्यों दरार रखते हैं।
सिखाये जिसने हमें ककहरे तुतलाते हुए...
ज़बां क्यूँ उनके लिए धारदार रखते हैं।
सभी को चाहिए बरक़त, अमन, चैन ओ सुकूं...
कोई बतला दे, फिर क्यों औज़ार रखते हैं।
किसे परवाह 'रवीन्द्र', तड़पते बड़े बूढ़ों की...
सजा के रौशनी में, सब मज़ार रखते हैं।
...©रवीन्द्र पाण्डेय
छायाचित्र गूगल से साभार...
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