Sunday, 29 April 2018

बाबुल के आँगना सा, ये सारा शहर होता....

कट जाती उम्र हँस कर, कुछ ऐसा बसर होता,
ये ज़िन्दगानी सचमुच, पंछी-सा सफर होता।

ना फ़िक्र में हम घुलते,  न जाया होती  उमर,
मस्ती में मुस्कुराते,  सब  दर्द  सिफ़र होता।

कोई नहीं पराया,   सब  दिल के पास  होते,
परवाह सबकी होती, जन्नत-सा ये घर होता।

चिड़ियों को आबोदाना, मौसम को नसीहत,
राही को दे जो साया, कोई ऐसा शज़र होता।

मासूम कलियाँ खिलतीं,  बेख़ौफ़  मुस्कुरा,
बाबुल के आँगना सा, ये सारा  शहर होता।

ख़्वाहिश यही 'रवीन्द्र',  सब खुश रहें  सदा,
ऐ काश के अब मेरी, दुआओं में असर होता।

...©रवीन्द्र पाण्डेय 💐
    *9424142450*

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