Wednesday 27 September 2017

सड़क अपने धुन में चली जा रही थी...

सड़क अपने धुन में चली जा रही थी..
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एक सड़क दूर तक, चली जा रही थी..
किनारे के पेड़ों से बतिया रही थी..
वो सड़क दूर तक, बस चली जा रही थी...

उस सड़क के किनारे, खड़े पेड़ सारे...
उन्हीं पेड़ो में एक पीपल खड़ा था...
अभी साखें थी कोपल, थोड़ा नकचढ़ा था...

उस पीपल ने सोचा, कुछ मस्ती ही कर लूँ...
छेड़ूँ सड़क को, जबरदस्ती ही कर लूँ...

सड़क से उसने पूछा कहाँ जा रही हो..?
कभी सीधी हो, कभी लचक खा रही हो...

तुम्हें क्या पता है ? तुम हो कितनी काली...
भटकते हैं तुमपे सब गुंडे मवाली...
तुम हो अमावस की इक रात जैसे, 
कभी तुमने देखी चमकती दीवाली...?

ये सुन के सड़क ने भरी साँस लम्बी...
मैं फिरती जमीं पर, नहीं गगनचुम्बी...
मैं दिखती हूँ काली, नहीं है ये कालिख...
निशानी पहियों की, जो जाते शिवालिक...

उन पहियों के ऊपर सजती है गाड़ी...
चलाते हैं जिसको, हुनरमंद या अनाड़ी...

गाड़ियों के भी कितने रूप हैं निराले...
कोई मालवाहक, कोई सवारी वाले...
किसी पर बना आशियाँ चलने वाले...
हैं उत्तर के गोरे, या दक्षिण के काले...

सभी चलते जाते हैं, रुकते नहीं हैं...
वो मंजिल हैं पाते, भटकते नहीं है...
कभी कोई छोटी सी गाड़ी में बच्चे...
चले हैं स्कूल, लेने तालीम अच्छे...

कभी कोई जाता है, सुबह को दफ़्तर...
सायकल का मालिक, या मालिक की मोटर...

कभी आती भी है कुछ ऐसी सवारी...
विदा हो सिसकती नई दुल्हन बेचारी...
मैं सुनती हूँ सबके अनोखे अफ़साने...
कमजोर सच, कुछ रंगीन बहाने...

मेरी आँख भीगे जब कोई शराबी...
राहगीर कुचले, कह वाहन की खराबी...

मैं रोती भी हूँ, देख कर हादसों को...
कोई तो सम्हालो, इन दहशत गर्दों को...

मैं कहती नहीं, कभी एम्बुलेंस ना गुजरे...
हाँ गुजरे, मगर वो प्रसव को ही गुजरे...

मैं अपने कुछ गड्ढे, छुपा भी तो लूँगी...
सुनूंगी खबर तो, मुस्का भी लूँगी...

कहूँगी फिर आना, ओ सुंदर सितारे...
देना इस सड़क को गौरव उजियारे...

तुम्हारे कदम को, तब मैं चूम लूँगी...
जाओगे सरहद, उस पल झूम लुंगी...
तुम लौटोगे लेकर के, विजयी तिरंगा...
मुझे बोध होगा, नहा ली मैं गंगा...

हाँ एक बात कहना मैं चाहूँ सदा ये...
सब मिल जुल के रहना, न करना कभी दंगा...

मैं सबके लिए हूँ, नहीं मेरा मज़हब...
मैं जाती हूँ पश्चिम, और जाती हूँ पूरब...
उत्तर में खुशबू है केसर की न्यारी...
दक्षिण में गौरव वो कन्याकुमारी...

तुम तो मगन धुन में रहते हो पीपल...
मैं गुजरूं शहर से, और जाती हूँ जंगल...

मेरे हमसफ़र हैं, ये पुल और चौराहे...
होटल-ढाबा भाई, तो बहन है सराय...

मैं बनती गली से, कभी आम रस्ता...
मैं दिखती हूँ काली, मगर ये बावस्ता...

मैं गोरों को घर से भगाई हुई हूँ...
कई राज दिल में छुपाई हुई हूँ...
मेरा रंग गोरा अगर हो ही जाये...
दाग हादसों के भला कैसे छुपाये...

इसलिए रखा मैंने, रंग अपना काला...
चलो मुझ पर संभल के, जाओ गिरजा शिवाला...

ये देते नसीहत सड़क जा रही थी...
किनारे के पेड़ों से बतिया रही थी...
कभी सीधी चलती, कभी बलखा रही थी...
देख पगडंडियों को, वो मुस्का रही थी...

खुद में कई रस्ते समाती कभी वो...
कभी खुद से रस्ता वो उपजा रही थी...
पहाड़ो पर चढ़ती, नदी पर उतरती...
हर मौसम को सहती, सजती, संवरती...

न वो घबरा रही थी, न इतरा रही थी...
वो सड़क अपने धुन में चली जा रही थी...

...©रवीन्द्र पाण्डेय 💐💐

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